जल मनुष्य को पुण्य कर्म करने की प्रेरणा देता है : डॉ सुखवीर यादव

 जल मनुष्य को पुण्य कर्म करने की प्रेरणा देता है : डॉ सुखवीर यादव 




संस्कृत वाङ्मय में जल संरक्षण के उपायों पर चर्चा करते हुए संस्कृत के प्रोफ़ेसर डॉ सुखवीर यादव बताते हैं कि भारतीय संस्कृति पूजा प्रधान है, पूजा में जल का अपना ही महत्त्व है, किन्तु आधुनिक काल में जल को मात्र एक प्राकृतिक संसाधन माना जाना वस्तुतः एक आधुनिक उपभोक्तावादी सोच है। जिसके परिणामस्वरूप जल प्रदूषण, जल अपव्यय, अत्यधिक जल दोहन इत्यादि समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। परन्तु प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल तक भारतीय संस्कृत विद्वान जल की पवित्रता, दिव्यता एवं जीवनदायी गुणों के प्रति आस्थावान रहे हैं। वैदिक काल से ही जल के प्रति आस्थाभाव देखा जा सकता है।संस्कृत वाङ्मय के अनेक ग्रन्थों में कूप, तालाब, वापी, जलाशय इत्यादि के द्वारा जल को संरक्षित किया गया है। नदियों की पवित्रता को धार्मिक दृष्टि से देखा जाता रहा है। वापीकूपतडागानि देवतायतनानि च।

अन्नपदानमारामाः पूतधर्मश्च मुक्तिदम्।।  

जल में दया, करुणा, उदारता, परोपकार, अखण्ड प्रवाह और शीतलता ये सभी गुण विद्यमान रहते हैं। जल मनुष्य को पुण्य कर्म करने की प्रेरणा देता है। जल ही जीवन है। (जलमेव जीवनम)। मनुष्य कितना भी अशांत हो, ठण्डे जल में स्नान करने से शान्त हो जाता है। जल के महत्त्व का वर्णन करते हुए यजुर्वेद में कहा गया है, मनुष्य को चाहिए कि जो सब सुखों को देने वाला, प्राणों को धारण करने वाला तथा माता के समान, पालन पोषण करने वाला जो जल है, उससे शुद्धता प्राप्त कर, जल का शोध करने के पश्चात ही उसका उपयोग करना चाहिए, जिससे देह को सुन्दर वर्ण, रोगमुक्त शरीर प्राप्त कर, अनवरत धार्मिक अनुष्ठान करते हुए, अपने पुरुषार्थ से आनन्द की प्राप्ति हो सके।


पुराणकारों ने भूमिगत जल के संरक्षण और संवर्धन को विशेष रूप से प्रोत्साहित करने के लिए नये जलाशयों के निर्माण के अतिरिक्त पुराने तथा जीर्ण शीर्ण जलाशयों की मरम्मत और जीर्णोद्धार को भी अत्यन्त पुण्यदायी कृत्य माना है।

यस्तडागं नवं कुर्यात्पुराणं वापि खानयेत्। 

सर्व कुलं समुद्धृत्य स्वर्गलोके महीयते।।


अथर्ववेद में एक जगह जल चिकित्सा पद्धति का उल्लेख है, मनुष्य को चाहिए कि वह समुन्द्र, वर्षा, नदी, सरोवर आदि के जल को आवश्यकतानुसार चिकित्सा में उपयोग करके, निरोग, वेगवान, प्रखर एवं बलशाली बने और समाज के हित में अपनी प्रतिभा एवं अपने बल का समुचित उपयोग कर सके। अपामह दिव्यानामपां स्त्रोतस्यानाम्।

अपामह प्रणेजनेऽश्वा भवथ वाजिनः।।  

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है, जो जल से जल का सृजन करता है और जल से जल का पालन करता है तथा जल से ही जल का हरण किया करता है, उस कृष्ण का निरन्तर भजन करो।

जलं जलेन सृजति जलं पाति जलेन यः।

हरेज्जलं जेलेनैव तं कृष्णं भज सन्ततम्।। 

यजुर्वेद के प्रथम अध्याय में कहा गया है, जैसे यह सूर्यलोक, मेघ के वध के लिए, जल को स्वीकार करता है, जैसे जल, वायु को स्वीकार करते हैं, वैसे ही हे मनुष्यों! तुम लोग उन जल औषधि रसों को शुद्ध करने के लिए, मेघ के शीघ्र वेग में, लौकिक पदार्थों का अभिसिंचन करने वाले, जल को स्वीकार करो और जैसे वे जल शुद्ध होते हैं, वैसे ही तुम भी शुद्ध हो जाओ।

आधुनिक काल में भी प्राचीन एवं अर्वाचीन उपायों के द्वारा जल संरक्षण किया जा सकता है। जल का महत्त्व प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल में निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है, अतएव कहा जा सकता है।

जलमेव जीवनम्। 


डॉ. सुखवीर यादव सम्मोही

असि0 प्रोफेसर, संस्कृत विभाग

अकेडमिक काउंसलर, इन्दिरा गाँधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली

Comments

Popular posts from this blog

अम्बेडकरनगर पुलिस टीम द्वारा 3 शातिर चोर गिरफ्तार , 06 चोरी की गई मोटरसाईकिल बरामद

अंबेडकरनगर के आलापुर तहसील अंतर्गत ग्राम टंडवा शुक्ल में मिला घायल अवस्था में हिमालयन गिद्ध

देवभूमि पब्लिक स्कूल गोपालपुर में बाल मेला का भव्य आयोजन